चोटी की पकड़–7
बुआ दूसरे कमरे में ले जायी गईं।
बाँदियों ने अपनी एक चटाई बिछा दी।
बुआ ने वहाँ कोई विचार न किया। बैठ गईं। रनवास गर्म हो रहा था।
राजकुमारी ने अपने पति से शिकायत की-बुआजी असभ्य हैं।
दामाद साहब के मन में यह धारणा जड़ पकड़ चुकी थी। उन्होंने बात को दोहराया।
अब रानी साहिबा भी आ गईं और अतिशयोक्ति अलंकार का सहारा लिया।-बुआ रानी साहिबा पर चढ़ बैठी, गद्दी का सरहाना दबाकर उनका अपमान किया, अपशब्द कहे, रानी साहिबा ने उन्हें अपनी पालकी भेजकर बुलाया था
, बैठने के लिए चंदन की जड़ाऊ चौकी रखवायी थी, भूत झाड़ने की तरह एक या दो रुपए लेकर राजकुमारी के सिर पर मुट्ठी घुमाने लगी, फिर मुन्ना दासी को देना चाहा, दासी ने नहीं लिया, वह कैसे ले सकती थी, फिर तरह-तरह की बातें सुनायीं जो गालियों से बढ़कर थीं।
दामाद साहब ने सलाह दी, अब बिदा कर देना चाहिए। रानी साहिबा इस पर सहमत नहीं हुई।
कहा -आदमी बनाकर भेजना अच्छा होगा। फिर कहा, जाएगी भी कहाँ? -तुम्हारी सगी बुआ है, अदब-करीने सीख जाएगी तो विभा (विभावती राजकुमारी) की मदद किया करेगी।
रानी साहिबा की सहानुभूति से दामाद साहब ने प्रसन्न होकर सम्मति दी।
एक दूसरे कमरे में रानी साहिबा ने मुन्ना को बुलाया और बुआ के सुधार के लिए आवश्यक शिक्षा दी।
मुन्ना ने उनसे बढ़ाकर कहा कि लाख बार समझाने पर भी बुआ ने कहना नहीं माना।
मुन्ना रोज बीसियों दफे उन पर रानी साहिबा का बड़प्पन चढ़ाती थी; पर वह सुनी-अनसुनी कर जाती थीं।
रानी साहिबा ने अब के उपदेश के साथ अपने सम्मान से काम लेने के लिए कहा, जैसे स्वंय वह रानी साहिबा हो।
इस बार बड़ी पालकी की जगह साधारण चार कहारोंवाली पालकी भायी। सिपाही और दासियाँ नदारद, सिर्फ मुन्ना। बुआ चुपचाप बैठकर चली आईं।